Friday 20 December 2013

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005

        हमारा भारत सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर महिलाओं को अनउपयोगी मानते हुए घर और परिवार में पैरो की जूती मानते हुये हमेशा से प्रताडि़त किया गया है और उन्हे ं  घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली वस्तु माना गया है और यही कारण है कि इनके साथ घर के अंदर घरेलू ंिहंसा की जाती है जिससे घर के आस-पास रहने वाले और उनके परिवार के सदस्यों को ज्ञान नहीं होता है । ऐसी घरेलू हिंसा से निपटने के लिये जो कुटुम्ब के भीतर होने वाली जो ंिहंसा से पीडि़त है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से लागू  किया गया है ।

        इस अधिनियम की धारा 3 में घरेलू हिंसा को परिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत अनावेदक का कोई कार्य या लोप, आचरण घरेलू हिंसा घटित करेगा जिनसे व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ, सुरक्षा जीवन को हानि पहुंचती है तो क्षति पहुंचाने वाला संकट उत्पन्न करता है तो उसके विरूद्ध शारीरिक, लैंगिक मौखिक रूप से उत्पीडि़त करना शामिल है । 

किसी से दहेज व अन्य संपत्ति की मांग करने पर उसकी पूर्ति के लिये उत्पीडि़त करना घरेलू ंिहसा कहलायेगी ।
    1-    शारीरिक दुरूपयोग:- से ऐसा कोई कार्य या आचरण अभिप्रेत है जो ऐसी प्रकृति का है जो व्यथित व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा अपहानि या उसके जीवन अंग स्वास्थ को खतरा  कारित करता हे या उसके अधिक स्वास्थ या विकास का हाॅस होता है और इसके अंतर्गत हमला,आप0 अभित्रास और आपराधिक बल भी है ।       

    2-    लैंगिक दुरूपयोग:-  से लैंकिग प्रकृति का कोई आचरण ,अभिप्रेत है जो महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, त्रिस्कार, करता है या उसका अन्यथा अतिक्रमण करता है ।

    3-    मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग के अन्तर्गत निम्नलिखित है-

    क-    अपमान, उपहास, तिरस्कार गाली और विशेष रूप से संतान या नर बालक के न होने के संबंध में अपमान या उपहास और
    ख-    किसी ऐेसे व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, जिसमें व्यथित व्यक्ति हितबद्ध है,
    4-    आर्थिक दुरूपयोग के अंतर्गत निम्नलिखित है ।

    क-    ऐसे सभी या किन्हीं आर्थिक या वित्तीय संसाधनों जिनके लिए व्यथित व्यक्ति किसी विधि या रूढि के अधीन
 हकदार है, चाहे वे किसी न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा संदेय हो या जिनकी व्यथित व्यक्ति किसी आवश्यकता के लिए जिसके अंतर्गत व्यथित व्यक्ति और उसके बालकों यदि कोई हों, के घरेलू आवश्यकताएं भी हैं, किन्तु जो उन तक सीमित नहीं है, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना,

    ख-    गृहस्थी की चीजबस्त का व्ययन, आस्तियों का चाहे वे जंगम हो या स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, जिसमें व्यथित व्यक्ति काई हित रखता है या घरेलू नातेदारी के आधार पर उनके प्रयोग के लिए हकदार है या जिसकी व्यथित व्यक्ति  या उसकी संतानो द्वारा युक्तियुक्त रूप से अपेक्षा की जा सकती है या उसका स्त्रीधन या व्यथित व्यक्ति द्वारा संयुक्तः या पृथकतः धारित करने वाली कोई अन्य संपत्ति और

    ग-    ऐसे संसाधनों या सुविधाओं तक जिनका घरेलू नातेदारी के आधार पर कोई व्यथित व्यक्ति, उपयोग या उपभोग करने के लिए हकदार है, जिसके अंतर्गत साझी गृहस्थी तक पहंुच भी है , लगातार पहंुच के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन । 
    स्पष्टीकरण 2-यह अवधारित करने के प्रयोजन के लिए कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कार्य, लोप या कुछ करना या आचरण इस धारा के अधीन ’’घरेलू हिंसा’’ का गठन करता है, मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार किया जाएगा ।

        घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत धारा  12 के अंतर्गत मजिस्ट्ेट को आवेदन दिये जाने पर या संरक्षण अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने पर न्यायालय द्वारा एक आदेश जारी किया जावेगा जो अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत संरक्षण आदेश जारी किया जावेगा जिसमें घरेलू हिंसा के कार्यो को रोकने के आदेश दिये जावेगें तथा आदेश धारा 19 के अंतर्गत पारित किया जा सकता है ।

    













भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर विधिक प्रतिपादनाएं

भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर            विधिक प्रतिपादनाएं

    क-    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के उपबंधों को लागू करने के लिए लोक सेवक को स्वयं के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धनीय फायदे को-
    1    भ्रष्ट या विधिविरूद्ध साधनो द्वारा या 
    2    लोक सेवक के रूप में अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग या
    3    किसी लोक हित के बिना अभिप्राय करना ।

         आर0साई भारतीय बनाम जे जयालालीथा, 2004    भाग-2 एस0सी0सी0 9 वाला मामला।

    ख-    लोक सेवक द्वारा अवचार आवश्यकतः अपने पदीय कर्तव्य के संबंध में किया जाना आवश्यक नहीं है । अतः यह आवश्यक नहीं हे कि लोक सेवक रिश्वत देने वाले को उसके द्वारा किए गए वदे के अनुसार शासकीय पक्षपात दर्शाने के योग्य है ।
         धनेश्वर नारायण सक्सेना बनाम दिल्ली प्रशासन ए0आई0आर0 1962 एस0सी0 195 सीबी और
         जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 वाला मामला ।

    ग-    प्रत्येक अवैध परितोषण की स्वीकृति चाहे मांग के पूर्ववर्ती य नहीं धारा 7 के अधीन आएगी । किन्तु यदि अवैध की स्वीकृति लोक सेवक द्वारा मांग के अनुसरण में है तो यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के अधीन भी आएगी ।
        राज्य बनाम ए0प्रतिबन 2006 भाग-11 एस0सी0सी0 473
         बालीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य 2008 भाग-14 एस0सी0सी0 779।

    घ-    एक बार यदि अभियोजन यह साबित करता है कि नकद या किसी वस्तु के रूप में परितोषण लोक सेवक को दिया गया है या उसके द्वारा स्वीकार किया गया है तो न्यायालय धारण 7 के अधीन विधिक विवाधक के अधीन यह उपधारणा करने के लिए सशक्त है कि उक्त परितोषण किसी पदीय कार्य को करने या करने से प्रवर्तित रहने के लिए हेतुक या परितोषक के रूप में संदत्त या स्वीकार किया गया था ।
        मधुकर भास्कर राव जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0 147 ।

    ड-    एक बार यह साबित हो जाता है कि अभियुक्त ने किसी ओर के बिना दूषित धन स्वीकार किया था तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हेै कि उसने धारा-13-1-घ के अर्थान्तर्गत मांग के अनुसरण में दूषित धन अभिप्राप्त किया । 

   एम0डब्ल्यू0 मुहीद्दीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0  567   जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

    च-    जब यह साबित हो जाता है कि कोई रकम लोक सेवक को अंतरित की गई है तो यह साबित करने का भार लोक सेवक पर है कि यह अवैध परितोषण के माध्यम से नहीं किया गया था।    
         बी0 नोहा बनाम केरल राज्य 2006 भाग-12 एस0.सी0सी0277।

    छ-    जब एक बार दूषित धन अभियुक्त लोक सेवक के कब्जे में आ जाता है तो या केवल निष्कर्ष निकाला जा सकता है उसने इसे स्वीकार किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के साथ पठित धारा-7 के अर्थान्तर्गत धनीय फायदा अभिप्राप्त किया 
      एम0डब्ल्यू0मोहीददीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567।
    
    ज    जहां  अभियेाजन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और धारा-13-1 घ के साथ पठित धारा-13-2 के अधीन दण्डनीय अपराध के संबंध में है । वहां यह तर्क कि उपधारणा नहीं निकाली जा सकती यदि धारा-13-2 के साथ पठित धारा-13-1घ के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरोप धारा-7 के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरेाप धारा-7 के अधीन भी है । 
        राज्य द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो हैदराबाद बनाम जी0प्रेम राज 2010 भाग-1 एस0सी0सी0 398 ।

    झ    यदि कानूनी उपधारणा अनुपयुक्त है क्योंकि आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा-5-1घ के अधीन है तो न्यायालय स्थितियां स्वयं बोलती है, के सिद्धांत को लागू कर सकता है । यदि लोक सेवक परिवादी से अभिप्राप्त चिन्हित करेंसी नोटो के साथ रंगे हाथ पकडा गया है ।
        रघुवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य 1974 भाग 4 एस0सी0सी0 56 
        ए0आई0आर0 1974 एस0सी0 1516, 
        राज्य ए0पी0बनाम जीवरतनम 2004 भाग 6 एस0सी0सी0 488।

    ञ - जब यह साबित हो जाता है कि धन की स्वीकृति स्वेच्छया और सोच समझकर की गई थी तो धारा 7 के साथ पठित धारा 13 एक घ के अधीन आरोप में अभियोजन को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा मांग या हेतुक साबित करने का अतिरिक्त भार नहीं डाला जा सकता ।
         ( बी. नोहा बनाम केरल राज्य, 2006 (12) एस.सी.सी. 277 ) ।
    
    ट - महाराष्ट्र राज्य बनाम रसीद बी. मुलानी, 2006 एक एस.सी.सी. 407 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसकी परीक्षा के दौरान विलंब से न कि अन्वेषक अधिकारी को तत्काल अभियुक्त द्वारा दिया गया रिश्वत धन प्राप्त करने के लिए स्पष्टीकरण स्वीकार नहीं किया। 

    ठ - धारा 13 (1) घ के साथ पठित धारा 13 (2) के अधीन किसी भी समय अभियुक्त की यह दलील कि रिश्वत धन बलपूर्वक उसके हाथ में दिया गया था, 313 के अधीन परीक्षा के दौरान पहली बार उठाई गई दलील सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं की गई ।
      राज्य ए.पी. बनाम पी. सत्यनारायण मुरतय, 2009 (9) एस.सी.सी. 674 ) । 
    
    ड - लोक सेवक की ओर से तत्काल स्पष्टीकरण देने की सफलता पर जब पुलिस अधिकारी ने साक्षियों की उपस्थिति में यह घोषित किया कि अभियुक्त लोक सेवक ने परिवादी से रिश्वत धन ग्रहण किया, अभियोजन मामले के समर्थन में परिस्थिति के रूप िमें विचार नहीं किया जा सकता ।
     सुल्ताना अहमद बनाम बिहार राज्य, 1947 चार एस.सी.सी. 252 
    जोसफ जेम्स बनाम केरल राज्य, 2010 (1) के.एल.डी. 581) 

    ढ-    लोक सेवक का सामान्य और अनैच्छिक प्रक्रिया जब करेंसी नोट उसे सौंपे जाने का प्रयास किया गया घोर विरोध के पश्चात ऐसे व्यक्ति को जिसने उसे रिश्वत देने का प्रयास किया जोरदार डांट डपट किया गयाथा यदिजाल के दौरान मामले में ऐसी केाई बात घटित नहीं हुई तो यह ऐसा परिस्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।


        ए0 शशिधरन बनाम केरल राज्य 2007 भाग-2 के0एल0डी0 600 
        जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

                               सामान्य आशय के अग्रसरण में ऐसा करने के लिए और अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग करते हुए रिश्वत की मांग की ओर स्वीकार किया और तदद्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और 13-2 के साथ पठित धारा-13-1-घ तथा भारतीय दंण्ड संहिता की धारा-34 के अधीन दण्डनीय अपराध किया गया माना जाता है ।

धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना

 यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

  ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

    धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

 2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57
 स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240
  में निर्धारित किया है कि

 ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’

        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया । 

        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितिया न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए ।

 यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं । 

        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 
        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’

        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’


        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-

        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’


        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ नेमारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-

        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’ 

        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा ।

 यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे ।

 परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी । 
       

       
     

सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-122 में दान

सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-122 में दान को परिभाषित किया गया है ।

 दान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व बताये गये हैंः-

    1-    दाता एंव अदाता दोनो को जीवित होना चाहिए।

    2-    दान की सम्पत्ति निश्चित और दान के समय विद्यमान होना चाहिए।

    3-    दान स्वैच्छिक और बिना किसी प्रतिफल के होना आवश्यक है ।

    4-    दाता द्वारा दान सम्पत्ति का अंतरण किया जाना आवश्यक है ।

    5-    अदाता द्वारा दान सम्पत्ति का प्रतिग्रहण करना आवश्यक है  

            और  यह प्रतिग्रहण   दाता के जीवनकाल में ही किया जाना चाहिए ।

    6-    यदि दान सम्पत्ति स्थवर होतो दान विलेख दाता अथवा उसकी तरफ से किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा         हस्ताक्षरित          और कम से कम दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित होना आवश्यक है 
               दान विलेख का   रजिस्ट्ी करण होना भी आवश्यक है ।

                     

अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत मजिस्टेªट को जमानत देने की अधिकारिता

  अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 एक विशेष अधिनियम है और इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के विचारण के लिये विशेष न्यायालय का गठन किया गया है।

                                 अधिनियम को धारा-3 के अंतर्गत वर्णित अपराधों में कम से कम छह माह एवं अधिकतम 05 वर्ष तथा कुछ अपराधों में मृत्यु दण्ड तथा आजीवन कारावास तक की सजा के प्रावधान दिये गये हैं।

                           इस संहिता में जमानत के संबंध में धारा-18 के अंतर्गत केवल यह प्रावधान दिया गया है, कि दं0प्र0सं0 की धारा-438 के प्रावधान इस अधिनियम के अधीन अपराध करने के अभियोग पर किसी गिरफ्तारी के किसी मामले के संबंध में लागू नहीं होंगें।


                                  इसके अलावा जमानत के संबंध में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। ऐसी दशा में सुस्थापित सिद्धांत है, कि जब विशेष अधिनियम में जमानत के संबंध में कोई प्रावधान न दिये गये हो, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होंगे।

                                    दं0प्र0सं0 के    23 की अनुसूचि-2 के अनुसार अन्य विधियों के विरूद्ध अपराधों में 03 वर्ष से कम की सजा या केवल जुर्माने से दण्डनीय अपराध जमानतीय माने गये हैं और तीन वर्ष से अधिक की सजा के अपराध अजमानतीय माने गये हैं। 


                                    ऐसी दशा में जब विशेष अधिनियम में जमानत संबंधी कोई प्रावधान नहीं है, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होते हैं। 


        इस संबंध में मानन0उच्च न्यायालय द्वारा मिर्ची उर्फ राकेशवि.एम.पी.राज्य2001(3)एम0पी0एल0जे0-356 में यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति अधिनियम के तहत होने वाले मामले में विशेष न्यायालय द्वारा धारा-439 दं0प्र0सं0 के तहत जमानत प्रदान करने में सक्षम होता है। 


                          इसी प्रकार धारा-437 दं0प्र0सं0 के प्रावधान के अनुसार मजिस्टेªट केवल मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों को छोड़कर सभी मामलों में उसे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।


                            इस संबंध में सानू वि0 स्टेट बैंक आॅफ केरल राज्य 2001 क्राइम्स 292, रामभरोस वि0 उत्तरप्रदेश राज्य 2004 (2) क्राइम्स 651 तथा संजय वि0 महाराष्ट्र राज्य क्रि0ला0जनरल 2984 बाम्बे में स्पष्ट रूप से यह अभिनिर्धारित किया गया है कि:-


                                       उन मामलों में सिवाय जिनमें कि व्यक्ति को मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध में विचारित किया जाना हो न्यायालय के मजिस्ट््रेट को अभियुक्त को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने के संबंध में विस्तृत शक्ति प्राप्त होती है, इनका उपयोग न्यायिक तौर पर किया जाना चाहिए।


                                       जमानत प्रदान करने में मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त गंभीर प्रकृति के अपराध को करने के संबंध में अभियुक्त है, जमानत प्रदान करने में सम्पूर्ण प्रतिषेध नहीं होता है। 

                                            धारा-209 दं0प्र0सं0 के अलावा जो कि कमिटल कार्यवाही को व्यक्त करती है मजिस्टे््रेट को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने की शक्तियों पर र्को वर्जन अधिरोपित नहीं किया गया है।



                                            यह भी स्पष्ट किया गया है, कि अपराध को विचारण करने के संबंध में मजि0 को शक्ति का अभाव है। आगे यह स्पष्ट किया गया है कि जब तक विशेष विधान को जो कि विशेष न्यायालय को इसके अधीन होने वाले अपराधों के विचारण के बाबत् अनन्य अधिकारिता प्रदान करता है,

                                    जैसा कि स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा-36 (क) में प्रावधान है, जिसमें कि मजि0 को आरोपीगण को ऐसे अपराध कारित करने के संबंध में जमानत प्रदान करने से अपवर्जित किया गया हो, उसके सिवाए जमानत प्रदान करने के संबंध में मजि0 को शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।

                               मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त 1989 के अनु0जाति0जनजाति अत्या0निवारण अधिनियम में अभियुक्त है, जब तक कि अपराध मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दण्डनीय ना हो। 

                                               इस संबंध में ए0एम0अली वि0 केरल राज्य 2000 क्रि0ला0जनरल 2721 में प्रतिपादित किया गया है, कि यदि कुछ अपराध साधारण प्रकृति के और कुछ अपराध गंभीर किस्म के अपराध हो, तो ऐसी स्थिति में भी मजिस्टेªट को सामान्य सिद्धांत के अनुसार धारा-437 दं0प्र0सं0 के तहत एस0सी0एस0टी0 एक्ट में जमानत देने की क्षेत्राधिकारिता प्राप्त है। 



                                  गंागुला अशोक वि0 आंध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 -2000 एस0सी0डब्ल्यू0 279 मंे यह भी अभिनिर्धारित किया गया है, कि ‘‘विशेष न्यायालय बिना कमिटल के अपराध का विचारण नहीं कर सकता है और मजिस्टेªट के धारा-209 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत उपार्पण करने के उपरान्त प्रकरण का विचारण विशेष न्यायालय करती है और धारा-209 (ख) में स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया गया है, कि जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण के दौरान और समाप्त होने पर अभियुक्त को अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित किया जायेगा


                               इस प्रकार धारा-209 (ख) सहपठित धारा-437 के प्रावधानों के अनुसार भी मजिस्टेªट को विशेष अधिनियम मंे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है। 

                                                 खाली गवार वि0 राज्य 1974 क्रि0ला0जनरल 526 एस0के0 और आफताब अहमद वि0 यू0पी0 राज्य 1990 क्रि0ला0जनरल 1636 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि मजिस्टेªट को जमानत देने का अधिकार उसके प्रकरण के विचारण करने के अधिकार से संबंधित नहीं है।


                            जमानत का अधिकार आरोपित अपराध मंे सजा से संबंधित है और धारा-437 के प्रावधान के अनुसार मृत्यु दण्ड और आजीवन कारावास से दंडनय अपराध को छोड़कर शेष सभी मामलों में मजिस्टेªट द्वारा जमानत दी जा सकती है।

                                ऐसी दशा में मान0उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों में धारा-437, 209 दं0प्र0सं0 के प्रावधान को देखते हुए  मजिस्टेªट को इस विशेष अधिनियम के अंतर्गत जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

अंतरिम भरण पोषण का आदेश अंतर्वर्ती नहीं

2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0
 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र,

  2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः

2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148
 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई 

 में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है ।

 यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है । 

        ऐसा कोई आदेश जो कि व्यक्ति के अधिकार को सारवान तौर पर प्रभावित करता है अथवा या सारवान तौर पर प्रतिकूलता कारित करता है तो इसे अंतर्वर्ती आदेश होना नहीं कहा जा सकता है ।

 अंतरिम भरण पोषण का आदेश जो कि पक्षकारों के अधिकारों को सारवान तौर पर प्रभावित करता है उसे अंतर्वर्ती होना नहीं माना गया । 

पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881 में दिये विशेष प्रावधान


      (1).    धारा-147 निगोषियबिल इन्स्टूमेंट एक्ट के अंतर्गत दण्डनीय प्रत्येक अपराध     क्षमनीय है ।
    (2)    राजीनामा के लिए न्यायालय कीे अनुमति आवष्यक नहीं है ।
    (3)    धारा 138 का अपराध क्षमनीय है ।
    (4)    धारा-147 में राजीनामा हो जाने पर आरोपी को दोषमुक्त माना जायेगा ।
    (5)    षिकायतकर्ता द्वारा गवाही हल्फनामे पर धारा-145 के अंतर्गत दी जा सकती है ।
    (6)    यह षपथ पत्र सभी न्यायसंगत अपवादो के अंतर्गत जांच विचारण की कार्यवाही में पढा जायेगा।
    (7)    न्यायालय अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर षपथकर्ता केा             परीक्षण हेतु बुलासकता है     
    (8)    अपराध के पंजीयन के लिए 200 या 202 दं.प्र.स. के अंतर्गत मौखिक परीक्षण             आवष्यक नहीं है ।
    (9)    धारा-146 के अंतर्गत बैंकं पर्ची  अनादरण कें तथ्यों की प्रथम दृष्टया साक्ष्य हे ।
    (10)    चैक अनादृत हो गया है बैंक पर्ची पेष की जाने पर न्यायालय चेक अनादृत मानेगा 
    (11)    वे मेमो जिस पर षासकीय चिन्ह लगा हुआ है जिससे यह पता चलता है कि चैक अनादृत हो गया है । न्यायालय चेक का अनादृत  मानेगा ।
    (12)    यह कि जब तक ऐसा तथ्य असाबित नहीं हो जाता तब तक न्यायालय बैंक की पर्ची या मेमो पेष किये जाने पर अनादृत मानेगा  ।
    (13)    धारा 144 में संमंस तामीली का तरीका दिया गया है ।
    (14)    अभियुक्त का या गवाह का संमसं जारी करने वाले मजिस्ट्ेट जहां पर वह वास्तव में रहता है भेज सकता है ।
    (15)    जहां पर वह व्यवसाय करता है या व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है उसे संमस भेज सकता है ।
    (15)    संमंस स्पीड पोस्ट द्वारा या कोरियर द्वारा भेजा जा सकता है  इसके लिए सत्र न्यायालय की अनुमति आवष्यक है ।
    (16)    जहां प्राप्ति पर संमंस लेने से मना कर दिया है कि टीप अंकित हो वहां         न्यायालय यह घोषित  कर सकता है कि संमंस जरिये तामील हो गया है ।
    (17)    धारा-143 में प्रार्थी का विचारण प्रथम श्रेणी न्यायिक दण्डाधिकरी अथवा महानगर मजिस्ट्ेट संक्षिप्त विचारण कर सकता है ।
    (18)    संक्षिप्त विचारण के दौरान दं.प्र.सं. की धारा-262 से 265 के अनुसार विचारण किया     जा सकता है ।
    (19)    संक्षिप्त विचारण के दौरान एक वर्ष से अधिक की सजा और पांच हजार से अधिक का अर्थ दण्ड नहीं दिया जा सकता है । 
    (20)    विचारणं इस धारा के अंतर्गत षिंकायत दर्ज होने के 6 माह के अंदर पूरा किये जाने की कोषिष की जायेगी इस धारा के अंतर्गत मामले का विचारण नतीजे तक     दिन प्रति दिन     जारी रहेगा । 
    (21)    धारा-142 में अपराध का सज्ञानं लिखित षिकायत पर पाने वाले अथवा चैक धारक के द्वारा करने पर दिया जायेगा ।
    (22)    षिकायत एक महिने केे अंदर की जावेगी जब धारा-138 सी के अंतर्गत चेक देने वाले पर नोटिस प्राप्त होने के बाद 15 दिन के अंदर धनराषि का संदाय नहीं किया जाता है ं।
    (23)    महानगर मजिस्ट्ेट अथवा प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा यह अपराध का विचारण किया जावेगा ।
    (24)    न्यायालय निर्धारित समयअवधि के बाद पर्याप्त कारण विलम्ब का दर्षाये जाने पर भी षिकायत का संज्ञान ले सकता है । 
    (25)    द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा धारा-138 के अपराध का संज्ञान नहीं लिया जा सकता     है ।
    (26)    धारा-141 में भी कम्पनी को दंड दिया जा सकता है ।
    (27)    धारा-141 में कम्पनियों द्वारा किये गये अपराध के लिए कम्पनी को उत्तरदायी धारा-138 में बनाया जा सकता है ।
    (28)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध होने के समय कम्पनी में व्यवसाय व कम्पनी के संचालन का भारसाधक था दण्डित किया जावेगा ।
    (29)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध के लिए उत्तरदायी है अपराध का दोषी माना जायेगा, यदि व्यक्ति यह प्रमाणित कर दे कि अपराध उसकी जानकारी में  किया गया है तो वह उत्तरदायी है । यदि यह प्रमाणित करता है कि उसने ऐसे अपराध को रोकने के लिए पूरे समय तत्पर्ता अपनाई थी तो भी वह उत्तरदायी नहीं है ।    
     (30)    धारा 141 में कम्पनी का अर्थ निगमित निकाय से है ।
     (31)    इसमें व्यक्तियों की फर्म सम्मिलित है ।
     (32)    इसमें अन्य संघ षामिल है ।
     (33)    निदेषक का अर्थ फर्म के संबंध में फर्म के हिस्सेदार से है ।
     (34)    कम्पनी के भारसाधक का अर्थ व्यवसाय के दिन प्रतिदिन के सम्पूर्ण नियंत्रण से है ।
     (35)    केवल कम्पनी की तरफ से चेक पर हस्ताक्षर करने वाले निदेषक को सूचना पत्र देना पर्याप्त है । 
     (36)    केवल कम्पनी को ही सूचना पत्र देना अनिवार्य है ।
     (37)    कम्पनी के पारिसमापन के बाद भी निदेषक उत्तरदायी नहीं है ।
     (38)    धारा 140 के अनुसार यह उचित अभिकथन नही होगा कि चैक जारी करते समय जारी कर्ता के द्वारा विष्वास करने का कारण ं था कि कथित कारण से चेक अनादृत हो जावेगा । 
     (39)    धारा 139 में धारक के पक्ष में खण्डित उपधारणा दी है ।
     (40)    जिसके अनुसार यह उपधारणा की जाएगी  कि चैक धारक ने किसी ऋण या अन्य दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वाह करने के दौरान प्राप्त किया ।
     (41)    यह उपधारणा की जावेगी कि आंशिक रूप से निर्वाह करने के लिए चैक प्राप्त किया ।
     (42)    धारा 138 के अंतर्गत 2 वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है ।
     (43)    धारा-138 के अंतर्गत अर्थ दण्ड चैक की दुगनी रकम तक हो सकेगा ।
     (44)    दोनो दण्ड से भी दण्डित हो सकेगा ।
     (45)    प्रतिकर चेक की रकम के अनुसार दिया जायेगा ।
        धारा 138 के अपराध के लिए निम्नलिखित 
    (46)    चैक लिखी तारीख से 6 महिने की मियाद बैंक में पेष हो । अब मियाद की अवधि 3 महिने हो गई है । लेकिन अधिनियम में परिवर्तन नहीं किया गया है।
    (47)    चैक तिथि मान्य अवधि के लिए पेष हो ।
    (48)    दोनो में जो पहले हो तब पेष हो ।
    (49)    चैक अनादरण कीसूचना के 30 दिन के अंदर लिखित नोटिस देकर धन की मांग की जाना जरूरी है ।
        धारा138 के लिए आवष्यक
    (50)    चैक लिखने वाला व्यक्ति प्राप्ति के बाद 15 दिनो के अंदर धनराषि का भुगतान कर दे ।
    (51)    15 दिन के अंदर भुगतान करें ।
    (52)    केवल कानूनी रूप से वसूली ऋण धन प्राप्त किया जा सकता है। 
    (53)    केवल कानूनी रूप से वसूल योग्य अन्य दायित्व धन की वसूली की जा सकती है।            
        धारा-138 में 
    (54)    बैंक से तात्पर्य उपरवाल बैंक  से है अनादृत बैंक से नही है ।
    (55)    चैंक कालसीमा बाधित ऋण के लिए दिये जाने पर प्रावधान धारा-138 के आकर्षितनहीं होते ।
    (56)     यदि अभिस्वीकृति कालसीमा बाधित ऋण की समय समाप्त होने के पूर्व प्राप्त होगी तभी धारा-138 आकर्षित होगी ।
    (57)    चैक उपहार दान धरमार्थ दिये जाने पर भी अनादरण की दषा में धारा-138 लागू नहींहोती है 
    (58)    विक्रय के प्रतिफल स्वरूप जारी चैक अनादरण पर धारा-138 लागू होती है।
    (59)    खाता बदं होने पर भी लागू होगी ।
    (60)    स्टाप पेमेंट पर लागू होगी ।
    (61)    पिता के ऋण के बदले पुत्र चैक दे दे तो धारा-138 लागू नहीं होगी ।    
    (62)    पोस्टेड चैक खाता खत्म मात्र प्राप्ति की सूचना के बाद पेष होने पर भी धारा-138 लागू होगी ।
    (63)    अपर्याप्त राषि पं्रबंधक के पद की टीप धारा-138 लागू होती ।
    (64)    ओवर ड्ाफट की दषा में लागू होगी ।
    (65)    ओवर ड्ाफट की दषा में यदि बैंक एकांकी रूप से सुविधा बंद कर दे तो धारा‘138 लागू नहीं होगा ।
        धारा-138 के लिए 
    (66)     चैक पर हस्ताक्षर पर्याप्त हैे ।
    (67)    चैक पूरा निष्पादक द्वारा ही लिखा जाना अनिवार्य नहीं है ।
    (68)    पेय आडर चैक की परिभाषा में आता हैं।
    (69)     स्वयं के देय पर धारा-138 लागू नहीं ंहोता है।
    (70)    यदि चैक लेखीवाल के अपूर्ण हस्ताक्षर में हो जो बेईमानी पूर्वक न हो तभी तो धारा-138 आकर्षित होती है ।
    (71)     यदि हस्ताक्षर का मिलान नहीं हो पायेगा तो धारा-138 लागू होती है ।
    (72)    संयुक्त हस्ताक्षर की दषा में एक के भी हस्ताक्षर पर धारा-138 लागू होती है ।
    (73)    नोटिस प्राप्ति पर चैक राषि अदा करने पर नोटिस का व्यय भी अदा करना जरूरी नहीं है ।
    (74)     धारा 138 के अंर्तगत आपराधिक कार्यवाही के साथ साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (75)    धारा-138 के साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (76)    दोनो कार्यवाही एक साथ चल सकती है ।
    (77)    सिविल कार्यवाही लंबित रहने की दषा में आपराधिक कार्यवाही कारक का दुरूपयोग नहीं है ।
    (78)    सूचना पत्र कीअवधि के अवतरण के पूर्व परिवाद प्रस्तुति अपरिपक्व नहीं होगी क्यों कि संज्ञान लेना परिवाद पेष करना दो अलग अलग बाते है ।    
    (79)    धारा-138 का परिवाद परिवादी की मृत्यु पर समाप्त नहीं होगा ।
    (80)    मृत परिवादी के विधिक उत्तराधिकारी मृत परिवादी की जगह षामिल होगे ।
     (81)    बेंक के संमंापन के बाद मर्जर बैंक परिवाद जारी रख सकता है ।
    (82)    गारंेटर के विरूद्ध परिवाद पेष किया जा सकता है ।
    (83)    यह कि 1 मार्च 1882 में लागू हुआ है ।
    (84)    यह कि 147 धारा है।
    (85)    बैंकर में डाक घर बचत बैंक षामिल है ं
    (86)    वचन-पत्र ऐसी लेख पर लिखा जाए जिसमें निष्चित व्यक्ति या उसके आदेषानुसार लिखत के वाहक को धन की निष्चित राषि बिना किसी षर्त के दी जाती है ।
    (87)    विनिमय-पत्र ऐसी लेख पर लिखत है जिसमें निष्चित व्यक्ति को निर्देष देने वाले के रचयिता के द्वारा हस्ताक्षर अषर्त आदेष रखता है निष्चित व्यक्ति को निष्चित राशि दिया जाए ।
    (88)    चैक वचन पत्र नहीं है ।
    (89)    चैक विनिमय पत्र है ।
    (90)    धारा-118 में लिखित के संबंध में उपधारणा दी गई है ।
    अधिनियम की धारा-118 के अनुसार जब तक कि प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता, निम्नलिखित उपधारणाएं की जाएंगी-
    (91)    प्रतिफल के विषय में यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ         रचित या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब  प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई  थी;
    (92)    तारीख के बारे में यह कि ऐसी हार परक्राम्य लिखत जिस पर             तारीख पडी है, ऐसी तारीख को रचित या लिखी गई थी;
    (93)    प्रतिग्रहण के समय के बारे में यह कि हर प्रतिग्रहित विनिमय-पत्र         उसकी तारीख के पश्चात युक्तियुक्त समय के अंदर और उसकी         परिपक्वता के पूर्व प्रतिगृहीत किया गया था;
    (94)    अन्तरण के समय के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत का हर             अन्तरण उसकी परिपक्वता के पूर्व किया गया था;
    (95)    पृष्ठांकनो के क्रम के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान         पृष्ठांकन उस क्रम में किए गए थे जिसमें वे उस पर विद्यमान हैं;
    (96)    स्टाम्प के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान-पत्र या             चैक सम्यक् रूप से स्टापित था;
    (97)    यह कि धारक सम्यक्-अनुक्रम धारक है यह कि परक्राम्य लिखत         का धारक सम्यक्-अनुक्रम-धारक है,
       (98)  अधिनियम की धारा-139 में उपधारणा दी गई है कि जब तक तत्प्रतिकूल साबित न हो यह उपधारणा की जाएगी कि चेक के धारक ने धारा 138 में निर्दिष्ट प्रकृति का चेक किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिए प्राप्त किया है ।