Wednesday 23 February 2011

जागो ग्राहक, सोयेगी सरकार

जागो ग्राहक, सोयेगी सरकार

 
डीडी वन पर आजकल एक विज्ञापन आ रहा है। इसमें एक युवक इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर लेता है। इसके बाद उसे पता चलता है कि उसकी डिग्री फरजी है क्योंकि उस संस्थान को सरकारी मान्यता नहीं मिली है। विज्ञापन का संदेश है- जागो ग्राहक जागो। इसमें यह भी सलाह दी गयी है कि ऐसे किसी संस्थान में नामांकन कराने से पहले उसकी मान्यता की जांच अवश्य कर लें।
सलाह अच्छी है। जागो ग्राहक जागो ताकि ठाठ से सोती रहे सरकार। ग्राहकों का जागृत एवं सचेत रहना जरूरी है लेकिन उनकी जानकारी और चेतना की अपनी सीमा है। आम ग्राहक के लिए किसी चीज की तहकीकात की भी अपनी सीमा है। जबकि सरकारी एजेंसियांे के पास हर मामले में विशेषज्ञता के साथ ही जांच-पड़ताल की भी असीमित क्षमता है। जिन चीजों में ग्राहक को ठगा जाता है, उन चीजों पर सरकारी एजेंसियां खुद नजर रखें तो काफी बड़ा फर्क आ सकता है।
मामला इंजीनियरिंग की फरजी डिग्री से जुड़ा है। आजकल विभिन्न् तकनीकी शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में नामाकंन के ऐसे विज्ञापनों एवं दावों की भरमार मिलती है जिनमें इन्हें मान्यताप्राप्त बताया जाता है। आम विद्यार्थियों एवं आम अभिभावकों के लिए यह बेहद मुश्किल है कि वे ऐसे दावों की तहकीकात करके किसी नतीजे तक पहुंच सकें। अगर सरकारी एजेंसियां ऐसे विज्ञापनों एवं दावों पर नजर रखें और गलत दावे करने वालों की धरपकड़ शुरू कर दें तो इस समस्या का नामोनिशान मिट सकता है।
गत 21 जून 2009 को रांची के एक अखबार में कैम्ब्रिज औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र का एक विज्ञापन आया। इसमें छह प्रकार के तकनीकी पाठ्यक्रमों में नामाकंन के लिए आवेदन मांगे गये थे। विज्ञापन में इसे श्रम नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग, झारखंड सरकार द्वारा अनुमोदित बताया गया। इसके तीन दिन बाद झारखंड सरकार के श्रम नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग का विज्ञापन आया कि उक्त केंद्र को कोई मान्यता नहीं दी गयी है। इसमें यह भी कहा गया कि अगर कोई विद्यार्थी इसमें नामांकन करायेगा तो इसकी जिम्मेवारी झारखंड सरकार की नहीं होगी।
झारखंड सरकार ने एक विज्ञापन देकर अपनी जिम्मेवारी से पीछा छुड़ा लिया। संभव है कि इसके बाद भी उक्त संस्थान द्वारा नामांकन करके विद्यार्थियों को फरजी डिग्री दी जाये। यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि सभी विद्यार्थियों और अभिभावकों ने झारखंड सरकार के इस विज्ञापन को देख लिया हो। सरकार का दायित्व तो ऐसे संस्थानों पर नकेल कसना होनी चाहिए जो सरकार की मान्यता होने का खुलेआम झूठा दावा करके विज्ञापन दे रहे हैं और विद्यार्थियों को बेवकूफ बना रहे हैं। लेकिन फिलहाल तो सरकार ग्राहकों को जगाने में लगी है ताकि खुद सोयी रह सके।

भूख के खिलाफ एक कानून

भूख के खिलाफ एक कानून 
भारतीय संविधान के 21 वें अनुच्छेद में हर नागरिक को जीने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन जिस व्यक्ति के पास जीने के लिए जरूरी साधन न हो और जो भूख से मरने के लिए मजबूर हो, उसके बारे में अब तक कोई स्पष्ट कानून नहीं है। भूख से मौत की जटिल परिभाषा के कारण बड़ी संख्या में ऐसी ज्यादातर मौतें रिकॉर्ड में नहीं आ पातीं। अब खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में पहली बार भारत सरकार हर इंसान को जिंदा रहने के लिए जरूरी खाद्यान्न् उपलब्ध कराने का दायित्व स्वीकारने जा रही है। यह कोई योजना नहीं, बल्कि एक कानून होगा। इस लिहाज से इसे सामाजिक कल्याण के एक बड़े कदम के बतौर देखा जा रहा है।
कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वादा किया था। पहली पारी में मनमोहन सरकार ने नरेगा और सूचना का अधिकार कानून बनाकर एक प्रगतिशील छवि बनाने में जबरदस्त सफलता पाई थी। कांगेस की सफलता के पीछे इन दोनों कानूनों का बड़ा हाथ माना जा रहा है। अब दूसरी पारी में मनमोहन सरकार खाद्य सुरक्षा कानून लाकर एक बड़ी लकीर खींचना चाहती है। इसे सौ दिनों के अंदर किये जाने वाले कार्यों की सूची में रखा गया है। केंद्रीय बजट में भी इसका प्रावधान देखा गया।
हालांकि भारत में खाद्य सुरक्षा संबंधी मौजूदा सुविधाओं और प्रावधानों का श्रेय किसी राजनीतिक दल को नहीं जाता। पीयूसीएल की राजस्थान इकाई ने वर्ष 2001 में भोजन के अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। उस वक्त देश के गोदामों में भरपूर अनाज होने के बावजूद देश के विभिन्न् हिससों से भूख से मौत की खबरें आ रही थीं। इस याचिका के साथ ही भोजन के अधिकार को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किये। आज भी सुप्रीम कोर्ट के प्रत्यक्ष देख-रेख में भी खाद्य सुरक्षा संबंधी सीमित व्यवस्था लागू है। इसमें बच्चों के लिए स्कूल में दोपहर का भोजन, आईसीडीसी और आंगनबाड़ी में मिलनेवाली खाद्य सामग्री प्रमुख है।
फिलहाल खाद्य सुरक्षा कानून के स्वरूप को लेकर विचार-विमर्श जारी है। इस दिशा में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस कानून के निर्माण की प्रक्रिया पर सिविल सोसाइटी को तीक्ष्ण नजर रखते हुए ठोस हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि एक मुकम्मल कानून बन सके। इस कानून की मूल भावना भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए सम्मानपूर्वक एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन जीने के लिए उपयुक्त खाद्य आवश्यकता उपलब्ध कराना बताई जाती है। इन खाद्य जरूरतों को पर्याप्त मात्रा में तथा पोष्टिक और सांस्कृतिक तौर पर अनुकूल होने और भौतिक, आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक बताया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्याह्न भोजन के लिए नियुक्त किये गये कमिश्नर के सलाहकार बलराम के अनुसार मौजूदा सभी योजनाओं का लाभ इस कानून में अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के सभी आदेशों के अनुकूल प्रावधान भी शामिल किये जाने चाहिए। इसके अंतर्गत सभी सरकारी एवं वित्त प्रदत्त स्कूलों में पकाया हुआ गर्म एवं पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने, छह साल तक बच्चों को आइसीडीएस की सुविधाएं और प्राथमिकता वाले समूहों को अंत्योदय की सुविधाएं उपलब्ध कराना शामिल है। जो सामाजिक समूह अब तक किसी योजना में शामिल नहीं हैं, उनके लिए भी खाद्यान्न् सुनिश्चित करने का प्रावधान किये जाने की मांग की जा रही है। जैसे, शहरी गरीब और स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे। भूख से मौत की ओर उन्मुख आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार से सक्रिय होने की इस कानून में अपेक्षा की जा रही है। इसमें धनी वर्ग को छोड़कर देश में रहने वाले सभी लोगों को जनवितरण प्रणाली के तहत प्रति परिवार 35 किलो अनाज प्रति माह तीन स्र्पये की दर से करने का प्रावधान होने की संभावना है। कमजोर समूहों को अनुदानित दर पर तेल एवं दाल, घी उपलब्ध कराने की मांग की जा रही है।
कुछ लोगों ने खाद्यान्न् के बदले गरीबों और बच्चों को नगद राशि देने का सुझाव दिया है। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता इनसे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि खाद्यान्न् का विकल्प खाद्यान्न् ही हो सकता है, नगद नहीं। फिर, नगद पर पुस्र्षों का अधिकार होता है, जबकि अनाज पर महिलाओं का अधिकार होता है। इस कानून में खाद्यान्न् से संबंधित मामलों में महिलाओं को घर का मुखिया मानने का प्रावधान करने का सुझाव दिया जा रहा है।
हमारे देश में विभिन्न् सामाजिक कल्याण संबंधी योजनाओं में कॉरपोरेट घरानों और ठेकेदारों की घुसपैठ होती रही है। इस कानून में इसे रोकने के सख्त उपाय की मांग की जा रही है। साथ ही, शिकायतों पर कार्रवाई की सुदृढ़ व्यवस्था, कानून की अवहेलना करने वाले अधिकारियों को दंड और इसके कारण वंचित लोगों को समुचित मुआवजा देना भी कानून का अनिवार्य अंग होना चाहिए। इस कानून में खाद्यान्न् उत्पादन को बढ़ावा देने तथा सभी क्षेत्रों में खाद्यान्न्ों में प्राप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी स्पष्ट प्रावधान हो।खाद्य सुरक्षा कानून में कई अन्य जटिलताओं को ध्यान में रखना जरूरी है। एक बड़ी जटिलता गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को चिह्नित करना, इनकी मुकम्मल सूची तैयार करना और समय-समय पर इसका संशोधन करना है। बीपीएल सूची के लिए नये मापदंड बनाने की जरूरत महसूस की गई है। फिर, इस संख्या के अनुपात में राशि का आवंटन करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। इसके अलावा वितरण की समस्या को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अब तक का अनुभव बताता है कि केंद्रीय योजनाओं का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच पाता तथा योजनाओं के बावजूद लोगों की जिंदगी पर कोई स्पष्ट दिखने वाला फर्क नजर नहीं आता। अब तक चल रही जन वितरण प्रणाली का हाल किसी से छुपा नहीं है।
ऐसे में खाद्य सुरक्षा कानून के लिए बड़ी चुनौती इसका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुंचाने के लिए मुकम्मल वितरण व्यवस्था तैयार करनी होगी। यही कारण है कि कृषि राज्य मंत्री केवी थॉमस ने इस कानून को नरेगा से भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण करार दिया है। इस कानून के मसविदा दस्तावेज में बीपीएल के अलावा कई अन्य लाभुक समूहों को तीन स्र्पये की दर से प्रतिमाह 35 किलो अनाज उपलब्ध कराने की बात कही गयी है। इसमें अकेली महिला, लेप्रोसी पीड़ित लोग, एचआइवी या मानसिक रोग ग्रस्त लोग, बंधुआ मजदूर, भूमि हीन कृषि मजदूर, स्वपेशा दस्तकार, कचड़ा चुनने वाले, निर्माण उद्योग से जुड़े मजदूर, फुथपाथ विक्रेता, रिक्शाचालक, घरेलू नौकर इत्यादि शामिल हैं। प्राकृतिक आपदा या सांप्रदायिक दंगे के शिकार लोगों को भी इसका लाभ मिल सकता है। ऐसे बीपीएल परिवारों को दोगुना राशन मिल सकता है, जिनमें छह साल से छोटे बच्चे, किशोरी, गर्भवती स्त्री या बच्चें को दूध पिलाने वाली मां हो। कानून के प्रारूप में हर पांच साल पर सर्वेक्षण करके लाभुकों को पहचान पत्र निर्गत करने की बात कही गई है। वृद्ध लोगों, अकेली महिला तथा विकलांगों को आइसीडीएस केंद्र या स्कूल में मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने की बात कही गई है। मसविदा विधेयक में राज्य सरकार पर जन वितरण प्रणाली द्वारा अनाज की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है। दुकानदारों के चयन में स्थानीय निकाय प्रतिनिधियों की भूमिका होगी तथा इन प्रतिनिधियों के साथ हर तीन महीने पर बैठक के जरीय निगरानी रखी जायेगी। राज्य सरकारों को पूरी जनवितरण प्रणाली दो साल के भीतर कंप्यूटरीकृत कर लेनी होगी। शिकायतें दर्ज कराने के लिए नि: शुल्क टेलीफोन नंबर तथा वेबसाइट की व्यवस्था करनी होगी। सभी शिकायतों का 39 दिनों में निपटारा करके इसे सार्वजनिक रूप से घोषित करना जरूरी होगा। इस कानून का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों पर एक महीने पांच साल तक के वेतन लग सकता है। लापरवाह अधिकारियों को भूख से मौत या गंभीर रोगजन्य स्थितियों के लिए छह माह से पांच साल तक जेल की सजा भी दी जा सकती है।
भारत में आज भी भूख और कुपोषण आज बड़ी समस्या है। अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने कालाहांडी को खाद्यान्न् का कटोरा बनाने का वादा किया था। लेकिन वह कोई ठोस कदम नहीं उठा सके। अब मनमोहन सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में एक बड़ी पहल की है। आज भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 32 करोड़ बताई जाती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भुखमरी के शिकार 119 देशों की सूची जारी की थी, जिसमें भारत का नाम शामिल है। झारखंड और छत्तीसगढ़ को सबसे ज्यादा खाद्य असुरक्षित राज्य माना जाता है। इनके बाद मध्यप्रदेश, बिहार और गुजरात का नाम आता है। फरवरी 2009 में विश्व खाद्य कार्यक्रम तथा एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ने ग्रामीण भारत में खाद्य असुरक्षा संबंधी एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें बताया गया कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। खाद्य उत्पादन के जिम्मे विकास, बढ़ती बेरोजगारी तथा गरीबांे की घटती क्रयशक्ति को इसका प्रमुख कारण बताया गया।
बहरहाल, भूख के खिलाफ एक कानून का सबको इंतजार है। कांग्रेस इसे सन सत्तर के गरीबी हटाओ के नारे तथा नरेगा की अगली कड़ी के बतौर देख रही है। भाजपा व अन्य विपक्षी इसे लोकलुभावन और सस्ता प्रयास बताकर इसकी मंशा और व्यावहारिकता पर अनगिनत सवाल खड़े कर रहे हैं। इतना तो तय है कि भूख से संरक्षण को कानून बनाने और हर आदमी की खाद्य सुरक्षा को राज्य का दायित्व स्वीकारने के बाद हमारा देश एक वास्तविक लोककल्याण राज्य बनने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ रहा होगा।

‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?

‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?

 
सूचना कानून ने हर नागरिक को सांसद और विधायक से ज्‍यादा ताकत दी है : जिन सवालों के उत्‍तर विधानसभा में विधायकों को नहीं मिलते उसे आम नागरिक आरटीआई से पा लेता है : लोकसभा के मौजूदा सत्र में दस अगस्त को दिलचस्प वाकया हुआ। खेल मंत्री एमएस गिल कॉमनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से जूझ रहे थे। इसी दौरान उन्होंने कह डाला कि सांसद चाहें तो सूचना कानून के सहारे ऐसे मामलों के दस्तावेज हासिल कर सकते हैं। इस जवाब ने मानो आग में घी का काम किया। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने नाराज होकर पूछ डाला- ‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई? 'लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था' में उपस्थित जनप्रतिनिधियों को किसी भी मामूली भारतीय की तरह सूचना मांगने की सलाह पर ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। लिहाजा कोई सांसद इस सलाह पर शायद ही अमल करे। लेकिन अनुभव बताते हैं कि सूचना कानून के सहारे कोई भी सामान्य नागरिक कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार से जुड़ी ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां आसानी से निकाल सकता है। ऐसी जानकारियां किसी सांसद या विधायक को संसद या विधानसभा में मिलना काफी मुश्किल और शायद असंभव है।

आखिर मामला क्या है? सूचना कानून में साफ लिख दिया गया है कि जिस सूचना के लिए संसद या विधानसभा को इनकार नहीं किया जा सकता, उसके लिए किसी नागरिक को भी इनकार नहीं किया जायेगा। स्पष्ट है कि आज कोई भी नागरिक हर वैसी सूचना मांग सकता है जो किसी सांसद या विधायक को मिल सकती है। दूसरी ओर, अब तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं बना है कि संसद या विधानसभा में हर ऐसी सूचना मिल सकती है, जो सूचना कानून के जरिये आम नागरिक को प्राप्त है। इसके कारण आज आम नागरिक हमारे जनप्रतिनिधियों की अपेक्षा ज्यादा धारदार तरीके से शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने योग्य दस्तावेजी सबूत हासिल कर रहे हैं।

संसद और विधानसभाओं में सवाल पूछने और जवाब देने के तरीके को देखें तो सूचना कानून से इसका फर्क पता चलता है। आम तौर पर लिखित प्रश्नों में जनप्रतिनिधि को अपनी ओर से कोई विशिष्ट सूचना पेश करते हुए यह पूछना होता है कि यह सच है अथवा नहीं। इसके लिए जनप्रतिनिधि के पास ठोस प्रारंभिक सूचना होना जरूरी होता है। क्या यह सच है, अगर हां तो क्यों शैली में पूछे गये इन प्रश्नों में अगर आपके पास पहले से पर्याप्त सूचना नहीं तो जवाब भी ठन-ठन गोपाल होने की पूरी गुंजाइश रहती है।

इसी तरह, सदन में आये प्रश्नों के जवाबों की भी खास प्रकृति होती है। नौकरशाहों द्वारा तैयार जवाबों के आधार पर सदन में मंत्री अपना पक्ष रखता है। इसमें सवाल उठाने वाले जनप्रतिनिधि को सारे संबंधित दस्तावेज नहीं दिये जाते बल्कि उस पर सरकार का पक्ष रखा जाता है। इसमें सवाल उठाने वाले को दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर जवाबतलब करने का समुचित अवसर प्रायः नहीं मिल पाता। दूसरी ओर, सूचना कानून ने प्रश्नोत्तर की इन सीमाओं से आगे जाकर संबंधित मामले के सारे दस्तावेज हासिल करने की जबरदस्त ताकत दी है। इसमें कोई सवाल उठाने के लिए नागरिक के पास अपनी प्रारंभिक एवं ठोस सूचना की जरूरत नहीं। वह एक साधारण पंक्ति लिखकर कॉमनवेल्थ खेलों की पूरी फाइल मांग सकता है। इस तरह फाइल लेने का कोई सामान्य प्रावधान संसद या विधानसभा में नहीं है।

तब क्या यह कहना अतिश्योक्ति है कि सूचना कानून ने आज हर नागरिक को सांसद और विधायक से भी ज्यादा ताकत दी है? संसद और विधानसभा के सत्रों को देखें तो यह बात और स्पष्ट हो सकेगी। जनता ने अपने जनप्रतिनिधि चुनकर भेजे। उन्हें नागरिकों की ओर से सवाल पूछने का दायित्व सौंपा गया। लेकिन साल में महज बीस से पचास दिन चलने वाले सदन की प्रक्रिया प्रायः विचारहीन शोरशराबे या औपचारिकताओं में डूबी रहती है। प्रश्नोत्तर काल का ज्यादातर समय हंगामे की भेंट चढ़ जाता है। महालेखाकर की रपटों, बजटों, योजनाओं, कानूनी संशोधनों या विधेयकों को कई बार पढ़ा तक नहीं जाता, बहस तो दूर की बात। जनप्रतिनिधियों के लिए सवाल पूछने की गुंजाइश अत्यंत सीमित रह जाती है। कुछ सवाल पूछे भी गये तो जवाब नदारद। जवाब मिला भी तो कार्रवाई खुदा जाने।

कोई विधायक-सांसद सवाल पूछना चाहे तो कोई जरूरी नहीं कि वह स्वीकृत हो जाये। हुआ भी तो जरूरी नहीं कि सदन में उस पर चर्चा हो। हुई भी तो जरूरी नहीं कि जवाब मिले। एक बार मामला खत्म, तो फिर अगले सत्र का इंतजार। एक दिन में कोई सांसद या विधायक कितने सवाल पूछ सकेगा, इसकी भी सीमा है। उन्हें यह कहकर टाला जा सकता है कि विभाग से सूचना की प्रतीक्षा की जा रही है। ऐसे हजारों उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जिनमें सांसद, विधायक के सवालों का जवाब बरसों तक नहीं मिला।

इस तरह, सदन में पूर्ण विफल जनप्रतिनिधि अपने कीमती समय का बड़ा हिस्सा समितियों की बैठकों और टूर-दौरों में, उद्घाटन और अभिनंदनों में, विवाह और शोक समारोहों की शोभा बनने में गंवा देता है। इससे भी कुछ समय निकला तो दलीय गुटबंदी। दूसरी ओर, सूचना कानून में एक माह की समय सीमा लागू है। नागरिकों के सवालों को स्थगित नहीं किया जा सकता। जवाब देना होता है। नहीं दिया तो सूचना आयोग दिला देगा। सूचना मांगने का कोई मौसम नहीं। यही कारण है कि आज कोई सवाल उठाने, जवाब मांगने के लिए नागरिक किसी जनप्रतिनिधि का मोहताज नहीं। वह हर चीज का हिसाब खुद मांगने, जांच करने को स्वतंत्र है। साठ साल में संसद और विधानसभा में जितने सवाल पूछे गये, उससे ज्यादा सूचना पांच साल में नागरिकों ने खुद ही हासिल कर ली है।

मजेदार बात यह है कि आज ऐसे सांसदों, विधायकों, पूर्व मंत्रियों की बड़ी संख्या है जो सूचना कानून का शानदार उपयोग कर रहे हैं। पूर्व सांसद रमेंद्र कुमार का स्पष्ट मानना है कि एक नागरिक के बतौर उन्हें यह कानून ज्यादा ताकत देता है। विधायक विनोद सिंह के अनुसार जो सूचना एक विधायक के बतौर उन्हें झारखंड विधानसभा में नहीं मिल सकी, वही सूचना उन्होंने एक नागरिक के तौर पर सूचना कानून के जरिए आसानी से हासिल कर ली। एक आईपीएस के खिलाफ तत्कालीन एडीजीपी वीडी राम की जांच रिपोर्ट का मामला काफी चर्चित है। माले के चर्चित विधायक महेंद्र सिंह द्वारा लगाये गये गंभीर आरोपों के बाद यह जांच गठित हुई थी। लेकिन स्पीकर के आदेश के बावजूद विधानसभा में यह रिपोर्ट पेश नहीं की गयी।

जिस विधानसभा के कारण वह जांच हुई, उसी विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। महेंद्र सिंह ने इसे बार-बार सदन में उठाया। उनकी हत्या के बाद उनके पुत्र विधायक विनोद सिंह ने भी सदन में रिपोर्ट पेश करने की मांग की। लेकिन विधानसभा को रिपोर्ट नहीं मिली। इसी बीच विनोद सिंह ने एक नागरिक के बतौर सूचना कानून के सहारे वही रिपोर्ट आसानी से हासिल कर ली। एक और दिलचस्प उदाहरण। वर्ष 2006 में झारखड विधानसभा में तेजतर्रार विधायक बंधु तिर्की ने विकास योजना की अरबों की राशि बैंकों में जमा रखने पर सवाल पूछे। सदन में जवाब मिला कि सूचना एकत्र की जा रही है। छह महीने बाद फिर यही जवाब। विधायक को कोई सूचना नहीं मिली। यह देखकर इन पंक्तियों के लेखक ने आरटीआई आवेदन देकर सरकार से यही सूचना मांग डाली। देखते-ही-देखते हजारों पृष्ठों की सूचना मिल गयी।

किसी भी विषय पर सवाल उठाने के लिए संबंधित आधिकारिक दस्तावेजों का अध्ययन आवश्यक है। सूचना कानून ने हर नागरिक को यह ताकत दी है। संसद और विधानसभा के प्रश्नोत्तर की प्रकृति भिन्न है। जनप्रतिनिधियों को अगर आधिकारिक दस्तावेजों का पूर्व अध्ययन करने का अवसर मिले तो उनके द्वारा उठाये गये सवाल ज्यादा धारदार हो सकते हैं। इसलिए समय आ गया है, जब सदन में सवालों और उन पर सरकार के जवाब को ज्यादा सार्थक और परिणामदायक बनाने के लिए सांसदों और विधायकों को संबंधित दस्तावेज कुछ दिनों पहले हासिल करने का अवसर मिले। अभी उन्हें सदन में या एक दिन पहले सिर्फ बेहद सीमित जवाब पकड़ा दिये जाते हैं। उन पर पूरक प्रश्नों के जरिये बहुत कुछ निकालना कई बार संभव नहीं हो पाता।

इसलिए आज सवाल यह नहीं है कि संसद से भी ऊपर आरटीआई है अथवा नहीं। सवाल सिर्फ इतना है कि इस कानून ने पारदर्शिता और जवाबदेही के जो नये आयाम खोले हैं, उनका सदुपयोग हमारे जनप्रतिनिधि किस प्रकार से करना चाहते हैं। अगर कोई जनप्रतिनिधि सदन के लिए अपने सवाल बनाने में आरटीआई का उपयोग करे तो आसानी से समझ लेगा कि ‘‘क्या संसद से भी ऊपर है आरटीआई?‘‘